ध्यान से व्यक्ति को बेहतर समझने और देखने की शक्ति मिलती है। साक्षी भाव में रहकर ही आप आत्मिकरूप से स्ट्रांग बन सकते हो। यह आपके शरीर, मन और आपके (आत्मा) के बीच लयात्मक संबंध बनाता है। दूसरों की अपेक्षा आपके देखने और सोचने का दृष्टिकोण एकदम अलग होगा है। ज्यादातर लोग पशु स्तर पर ही सोचते, समझते और भाव करते हैं। उनमें और पशु में कोई खास फर्क नहीं रहता। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी गुस्से से भरा, ईर्ष्या, लालच, झूठ और कामुकता से भरा हो सकता है। लेकिन ध्यानी व्यक्ति ही सही मायने में यम और नियम को साध लेता है। इसके अलावा ध्यान योग का महत्वपूर्ण तत्व है जो तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केन्द्रित होती है। उर्जा केन्द्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल बढ़ता है। ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। वर्तमान में हमारे सामने जो लक्ष्य है उसे प्राप्त करने की प्रेरणा और क्षमता भी ध्यान से प्राप्त होती है।
साधना या सामान्य स्थिति में होने वाले आध्यात्मिक अनुभवों का जिक्र औरों से करना नैतिक दृष्टि से तो गलत है ही, उससे ज्यादा आध्यात्मिक लिहाज से भी नुकसान देह है। योग और भक्तिमार्ग का अध्ययन और प्रयोग कर रही जर्मन साधिका वंदना प्रभुदासी (मूलनाम एडलिना अल्फ्रेड) का कहना है कि साधना के लिहाज से नैतिकता का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है।
महत्वपूर्ण यह है कि आप साधना के मार्ग पर कैसे चल रह हैं। इसीलिए किसी अनुभवी गुरु या साधक के संगी साथी का परामर्श उपयोगी साबित होता है।
साथ साधना कर रहे व्यक्तियों के अनुभवों का जिक्र करते हुए एडलिना ने शुरुआती दस अनुभव ऐसे बताए हैं जो अध्यात्म मार्ग पर बढ़ने के सूचक भी हो सकते हैं और किसी विकार के लक्षण भी। इन अनुभवों में ध्यान के समय भौहों के बीच पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है।
शरीर के निचले हिस्से पर जहां रीढ की हड्डी शुरु होती है, स्पंदन का अनुभव, सिर में शिखास्थान पर चींटियां चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ खिंचने जैसा लगना आदि भी इसी तरह के अनुभव है।
शुरुआती ध्यान के अनुभव में हमने बताया था कि पहले भौहों के बीच अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है। नीला रंग आज्ञा चक्र एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। अन्य रंगों की उत्पत्ति दृश्यों और ऊर्जा के प्रभाव से होती है।
निरंतर ध्यान करते रहने से सभी रंग हट जाते हैं और सिर्फ नीला, पीला या काला रंग ही रह जाता है। अब इस दौरान हमारे मन-मस्तिष्क में जैसी भी कल्पना या विचारों की गति हो रही है उस अनुसार दृश्य निर्मित होते रहते हैं। कहीं-कहीं स्मृतियों की परत-दर-परत खुलती रहती है, लेकिन ध्यानी को सिर्फ ध्यान पर ही ध्यान देने से गति मिलती है। एक गहन अंधकार और शांति का अनुभव ही विचारों और मानसिक हलचलों को सदा-सदा के लिए समाप्त कर सकता है।
यह अनुभव जब गहराता है, तब व्यक्ति का संबंध धीरे-धीरे ईथर माध्यम से जुड़ने लगता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म तरंगों का अनुभव करने लगता है और दूर से दूर की आवाज भी सुनने की क्षमता हासिल करने लगता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति ईथर माध्यम से जुड़कर कहीं का भी वर्तमान हाल जानने की क्षमता की ओर कदम बढ़ा सकता है। सिद्धियां गहन अंधकार और मन की गहराइयों में छुपी हुई हैं।
लोग सदियों से ध्यान-अभ्यास को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते रहे हैं। आज जबकि लोगों को इसके नए और अनेक लाभ पता चलते जा रहे हैं, तो इसकी प्रसिद्धि में भी बढ़ोतरी हो रही है। क्या आप भी परिचित हैं ध्यान से होने वाले शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ से, अगर नहीं तो आज हम आपको बताने जा रहे हैं ध्यान से होने वाले कुछ खास फायदों के बारे में….
ध्यान-अभ्यास के शारीरिक लाभ
डाक्टर हमें बताते हैं कि तनाव हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत हानिकारक प्रभाव डालता है। ध्यान-अभ्यास करने से हमारा शरीर पूरी तरह से शांत हो जाता है और हमारा समस्त तनाव दूर हो जाता है। परीक्षण बताते हैं कि ध्यान-अभ्यास के दौरान हमारी दिमाग़ी तरंगें धीमी होकर 4-10 हर्ट्ज़ पर काम करने लगती हैं, जिससे कि हमें पूरी तरह से शांत होने का एहसास मिलता है। इससे हमारे शरीर को भी अनेक लाभ मिलते हैं, जैसे कि बेहतर नींद आना, रक्तचाप में कमी आना, रोग-प्रतिरोधक क्षमता और पाचन प्रणाली में सुधार आना, और दर्द के एहसास में कमी आना। ये सभी लाभ ध्यान से हमें अपने आप ही मिलने लगते हैं।
दिन भर में हमारे मन में विचार चलते रहते हैं। जब हम ध्यान-अभ्यास करने के लिए बैठते हैं और अपने ध्यान को आत्मा की बैठक या तीसरे तिल पर एकाग्र करते हैं, तो हमारा मन शांत होने लगता है। हमारा ध्यान बाहरी दुनिया की समस्याओं से हट जाता है और हम पूरी तरह से शांत हो जाते हैं। नियमित रूप से ध्यान-अभ्यास करने से हमारी एकाग्रता बढ़ती चली जाती है। एकाग्र होने की क्षमता में इस बढ़ोतरी से और साथ ही तनाव में कमी, ऊर्जा में वृद्धि, और रिश्तों में सुधार आने से हम सांसारिक कार्यों में भी सफलता प्राप्त करते हैं। हम पहले से अधिक कार्यकुशल और उत्पादक हो जाते हैं। साथ ही, जीवन की चुनौतियों का सामना पहले से बेहतर ढंग से कर पाते हैं।
ज्योति ध्यान-अभ्यास और शब्द ध्यान-अभ्यास अनूठी विधाएं हैं। ये शरीर और मन को ही नहीं बल्कि आत्मा को भी लाभ पहुंचाती हैं। हमारी आत्मा, जो कि प्रभु का अंश है, अपने स्रोत यानी प्रभु से अलग हो चुकी है। शब्द ध्यान-अभ्यास के द्वारा हम अपने असली घर वापस लौट सकते हैं। अपने भीतर प्रभु के शक्तिशाली प्रकाश और ध्वनि के साथ जुड़ने से हमारी आत्मा बलवान होती है और हम अधिक चेतनता से भरपूर मंडलों में पहुंच जाते हैं। ये ताक़तवर आत्मा ही हमारा वास्तविक स्वरूप है और ये अपार ज्ञान, प्रेम और शक्ति का स्रोत है। ये एक पूरी तरह से आध्यात्मिक अनुभव है। ध्यान को अपने भीतर एकाग्र करने से ही हम आंतरिक रूहानी मंडलों का अनुभव कर सकते हैं और प्रभु के संपर्क में आ सकते हैं। इस प्रकार अपने जीवन के असली उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं।
मूलाधार चक्र – गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला आधार चक्र है। आधार चक्र का ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। वहां वीरता और आनन्द भाव का निवास है ।
स्वाधिष्ठान चक्र – इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्रलिंग मूल में है। उसकी छ: पंखुरियां हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
मणिपुर चक्र – नाभि में दस दल वाला मणिपुर चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि का नाश इस चक्र के जागरण पर होता है।
विशुद्धख्य चक्र – कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है। यहां सोलह कलाएं सोलह विभूतियां विद्यमान है
आज्ञाचक्र – भूमध्य में आज्ञा चक्र है, यहां हूं, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं ।
सहस्रार चक्र – सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से संबंध
अवचेतन मन के काम करने के दो मुख्य नियम होते हैं। दोहराने से हर चीज अवचेतन मन का हिस्सा (आदत) बन जाती है। अवचेतन मन सच और कल्पना में अंतर नहीं करता। इन दो नियमों के आधार पर अब हम अपने जीवन में आदतों में जैसा चाहें बदलाव ला सकते हैं, नए गुण डाल सकते हैं, असंभव कार्य कर सकते हैं, अपना स्वभाव बदल सकते हैं। पूरी तरह निश्चित कीजिए कि आप कैसा बदलाव चाहते हैं। असमंजसता मानव मस्तिष्क की कमजोरी है, आदत है। जब हम बदलाव चाहते हैं तब अनेक प्रकार के विचार एक साथ चलने लग जाते हैं। कोई भी विचार या निष्कर्ष शक्तिशाली और निश्चित नहीं होने के कारण अवचेतन मन को प्रभावित नहीं कर पाता है, इसलिए बैठकर सोचिए कि आप क्या वास्तविक बदलाव अपने जीवन में चाहते हैं, उसे एक पेपर पर लिखें। संकल्प वर्तमान में लिखें भविष्य में नहीं। जो भी संकल्प आप लिखना चाहते हैं, उसे वर्तमान वाक्य में लिखें।
मान लीजिए, आप में आत्मविास की कमी है तो वर्तमान में लिखें कि मैं आत्मविास से परिपूर्ण हूं। स्मरण शक्ति कमजोर है तो लिखें- मेरी स्मरण शक्ति बहुत तेज है। कमजोर अनुभव करते हैं तो लिखें कि मैं स्वस्थ व ऊर्जावान हूं। सुबह जल्दी नहीं उठते हैं तो लिखें कि मैं सुबह ठीक पांच बजे उठ जाता हूं और अपने सारे काम समय से निबटाता हूं। इस तरह न लिखें कि ‘हे ईर मेरा आत्मविास बढ़ाओ या स्मरण शक्ति तेज कर दो या मुझे शक्ति दो!’ ये वाक्य भविष्य के हैं, वर्तमान के नहीं। अवचेतन मन भविष्य के शब्द को, भविष्य की तरह लेता है। आप इस वाक्य में अवचेतन मन में ये शब्द और कल्पना का संदेश दे रहे हैं कि मेरे भीतर आत्मविास नहीं है, मेरी स्मरण शक्ति कमजोर है। इससे गलत प्रोग्रामिंग हो जाएगी और आपकी स्मरण शक्ति हमेशा भविष्य में तेज होती रहेगी, वर्तमान में नहीं होगी। अगर आप कल्पना में यह दृश्य बनाते हैं कि आप उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं और आप वैसे ही हो चुके हैं, जैसा आप चाहते हैं तो अवचेतन मन इसी वर्तमान के दृश्य को स्वीकार करेगा और वैसी ही ऊर्जा निर्मित करना शुरू कर देगा। नकारात्मक भाव कभी न लिखें। मान लीजिए आप चाहते हैं कि आपका क्रोध समाप्त हो जाए तो आप अगर यूं लिखेंगे कि अब मुझे क्रोध नहीं आता, तो आप क्रोध को ही दोहरा रहे हैं। तब इसके विपरीत शांत व्यवहार, निष्प्रतिक्रिया का भाव तो आप पैदा ही नहीं कर रहे है। जब आप क्रोध कहेंगे तो क्रोध को ही कल्पना में लाएंगे। शांत व्यवहार या समताभाव को कल्पना में लाएंगे तो अवचेतन मन में शांत भाव की कल्पना न जाने से शांतभाव आप में आएगा ही नहीं।
योग एक सरल पद्धति है| ध्यान और साधना के इस मार्ग पर चलकर घर ग्रस्ति वाले सभी लोग भी योग की अवस्था को प्राप्त कर सकते है और उनसे होने वाले शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त कर सकते है| महर्षि पतंजलि योगसूत्र के जनक है यह तो सभी जानते है| उन्होंने ही योग विद्या को व्यस्थित रूप दिया है। पतंजलि ने ही योग को अष्टांग योग या राजयोग कहा है|
योग के उक्त आठ अंगों में ही सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही हिस्सा है। हालांकि योग सूत्र के अष्टांग योग बुद्ध के बाद की रचना है। अष्टांग योग बहुत ही महत्वपूर्ण साधना पद्धति है, जिसका वर्णन पतंजलि ने अपने सूत्रों में किया है|
लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है। उन्होंने योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन किया है| यही अष्टांग योग है|आइये जानते है Ashtanga Yoga in Hindi को विस्तार से|
उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान। अब Ashtanga Yoga in Hindi के आठ अंगों की बात करते हैं। यम ,पांच हैं, – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,और अपरिग्रह। इसी तरह नियम भी पांच होते हैं। ये हैं – शौच (तन व मन की शुद्धि करना), संतोष, तप, स्वाध्याय (खुद को जानना कि मैं कौन हूं) और ईश्वरप्राणिधान (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण)। आसन का मतलब है, बिना हिले-डुले सुख से बैठना। प्राणायाम में शरीर को चलाने वाली प्राणऊर्जा को बढ़ाकर काबू में किया जाता है। इसी तरह प्रत्याहार में बाहरी विषयों से मन व इंद्रियों को हटाया जाता है और धारणा में भटकते मन को एक स्थान पर लाया जाता है। इसके बाद बारी आती है ध्यान की, जिसका मतलब है अपने स्वरूप का अनुभव करना। अंतिम पायदान है समाधि यानी अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में ही टिके रहना।
यम
कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
नियम
मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
आसन
पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।
प्राणायाम
योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
प्रत्याहार
इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
धारणा
चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। वैसे तो शरीर में मन को स्थिर करने मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु सर्वोत्तम स्थान हृदय को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो हिस्सा होता है उससे है।
ध्यान
जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
समाधि
यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधी की दो श्रेणियाँ होती है, सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात| सम्प्रज्ञात समाधि का मतलब वितर्क, विचार, आनंद से है और असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी प्रकार की वृतियों की रोकधाम हो जाती है|
- हमारी जीवन की अव्यवस्था, तनाव पैदा करती है और यही तनाव का एक साइड एफ्फेक्ट है चिंता| जब आप मैडिटेशन करते हैं, अपने श्वास लेने के साथ साथ पूरे शरीर में अंतरिक्ष आमंत्रित करते है, वही श्वास छोड़ते वक्त आपका पूरा तनाव बहार निकल जाता है|
- ध्यान आपको हर सिचुएशन को एक्सेप्ट करना सिखाता है| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपके जीवन में क्या हो रहा है यह आपको शांतिपूर्ण जीना सीखा देता है|
- जब भी आप ध्यान करते है तब कल्पना करे की आप सारी परेशानियों से बाहर आ रहे है| और यकीन मानिये आप जीवन की चिंताओं को आसानी से हैंडल करना सिख जाते है|
- आध्यात्मिक दृष्टि से यह माना जाता है कि नियमित ओम मंत्र का जप किया जाए तो व्यक्ति का तन और मन शुद्ध रहता है, साथ ही मानसिक शांति भी मिलती है| ओम मंत्र के जप से मनुष्य ईश्वर के करीब पहुचने की कोशिश करता है|
- सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है| इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और होरमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है| इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है|
- यह एक ऐसा उच्चारण है जिसके निरंतर प्रयास से हम शरीर और मन को एकाग्र कर सकते है| दिल की धड़कन और रक्तसंचार ठीक होता है| यह मानसिक बीमारियाँ को दूर करता हैं| काम करने की शक्ति बड़ने लगती है| इसका उच्चारण करने वाला और सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं| इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है|
- ओम मंत्र के जप का एक बड़ा फायदा यह भी है कि इससे मन में आने वाले अनजाने भय दूर हो जाते हैं और व्यक्ति में साहस और लक्ष्य प्राप्ति का उत्साह बढ़ जाता है|
- हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हारबर्ट बेन्सन ने एक शोध में यह बताया कि एड्स की बीमारी में भी ओम का जप फायदेमंद होता है| इतना ही नहीं इसके जप से बांझपन की समस्या भी दूर होती है|
जानें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का रहस्य
अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है – स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद नाड़ियों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाड़ियों के बारे में…
अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं।
शरीर के ऊर्जा-कोष में, जिसे प्राणमयकोष कहा जाता है, 72,000 नाड़ियां होती हैं। ये 72,000 नाड़ियां तीन मुख्य नाड़ियों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं। ‘नाड़ी’ का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। इन 72,000 नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता। यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 अलग-अलग रास्तों से होकर गुजरती है।
इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं। जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है।
पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से – या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से – नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है।
वैराग्य:
मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्यनता या खाली स्थान है। अगर शून्याता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्यष आ जाता है। ‘राग’ का अर्थ होता है, रंग। ‘वैराग्य’ का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। अगर आप पारदर्शी हो गए, तो आपके पीछे लाल रंग होने पर आप भी लाल हो जाएंगे। अगर आपके पीछे नीला रंग होगा, तो आप नीले हो जाएंगे। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं।
अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है। अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना ले।और उसी को कहते है तूर्य अवस्था।
छठी इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ सेंस कहते हैं।
सिक्स्थ सेंस को जाग्रत करने के लिए वेद, उपनिषद, योग आदि हिन्दू ग्रंथों में उपाय बताए गए हैं।
कहां होती है छठी इंद्री : मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है।
छठी इंद्री जाग्रत होने से व्यक्ति में भविष्य में झांकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है।
1. प्राणायम करनेसे जाग्रत होती है।
2. ध्यान करनेसे जाग्रत होती है।